साँझ ढलते ही
मुरझाती है
सुबह होते ही
खिल जाती है
हरे-भरे परिधान में
छुई-मुई मेरे आँगन में
नाजुक-सा तन-बदन
सुमन-सी सुकुमारी
मृदु स्पर्श मात्र से
सिमट-सिमट कर
रह जाती
आते-जाते सबके
पुलक जगाती तन-मन में
छुई-मुई मेरे आँगन में
उसके निकट बैठू तो
आती है मुझको
उससे चंपा-सी गंध
पत्ते-पत्ते पर
लिख लाती है
नित नवे छंद
गुलाब भी झूमता है
मेहंदी के गीत में
छुई-मुई मेरे आँगन में !!