शनिवार, 17 दिसंबर 2011

प्रेम क्या है ?


कभी किसी ने कहा....
प्रेम महज आत्मरति है 
या फिर भावनाओं का
आदान-प्रदान और
कुछ नहीं है प्रेम !
किस शब्द से लिखूं कि,
प्रेम क्या है ?
या निशब्द से कहूँ कि,
प्रेम क्या है ?
प्रेम कही ये तो नहीं ...
जिसके नाम मात्र से 
छाने लगती है खुमारी 
कानों में गूंजने
लगती है मंदीर क़ी
घंटियों क़ी आवाज !
सुनाई देने लगते है 
पवित्र अजान के स्वर ! 
तब हम किसी दिव्य
लोक में पहुँच जाते है 
प्रेम प्रार्थना बन जाता है 
तन चन्दन मन धूप 
बन जाता है !
कही हमारी ही 
नाभि से उठ रही 
कस्तूरी सुगंध तो 
नहीं है प्रेम ?

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर रचना ..स्वयं के अंदर ही तो है प्रेम ..

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  2. प्रेम हम सब के भीतर ही कहीं है..... सच कहा

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  3. प्रेम मा की लोरी से लेकर प्रीतम का बेतुका आलाप है:)

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  4. भावपूर्ण कविता के लिए आभार.........

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  5. प्यार महसूस करने की चीज़ है शारीरिक लिप्सा की नहीं जैसा आजकल देखने में आ रहा है.

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  6. क्या बात है बहुत सुंदर .......

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  7. जो कुछ भी कहा जाए,प्रेम से थोड़ा कम ही होगा।

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  8. बहोत सुंदर कविता । बडा अच्छा लगा पढ के ।

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  9. सुमन जी आपकी यह रचना मन को छो गयी .........बहुत ही सुन्दर व्याख्या है .......हाँ प्रेम को हम इस तरह से भी समझ सकते हैं | प्रेम =परे +मय अर्थात जब मन अहंकार से विरक्त होता है तो प्रेम की उत्पत्ति होती है | सच्चा प्रेम वही है जहाँ अहंकार शून्यता की स्थिति प्राप्त हो जाये |

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