शुक्रवार, 21 सितंबर 2007

मरू-उद्यान

ह्रदय के मरू उद्यान मे,
काव्यों के वृक्ष घने हैं
सतरंगी घटाओ मे ,
भावना के फूल खिले हैं
अमर बेलोंके झुरमुट मे
कोयल का नित प्रेम गान हैं
शीतल झरनों के संगीत में ,
अनहद का नाद छिपा हैं
पक्शियोंके चहचहाहट में
जीवन का वीतराग है
भूले भटके पल में ,
चाहे तो विश्राम यंहा है !

9 टिप्‍पणियां:

  1. खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  2. अच्छे बिम्बों से सजी खूबसूरत रचना ..

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  3. बहुत ही खूबसूरत कविता।

    सादर

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