रविवार, 18 अप्रैल 2010

छंद रचने के क्षण

रात के क्षण
सुबह से शाम
भागते दौड़ते
थक गया तन
जग की राहे
सुबह से शाम
कहते सुनते
उब गया मन
जग से बाते
छाया तम है
गहरा
निर्जन रात
एकांत चारो और
रजनी का पहरा
उद्वेलित श्वास
मन उदास
आंखे नम है
क्यों उमड़ने
लगी आज फिर से
भग्न अंतर की
निराशा
छंद रचने के क्षण !

5 टिप्‍पणियां:

amritwani.com ने कहा…

bahut khub

achi rachana


shkehar kumawat

http://kavyawani.blogspot.com/

amritwani.com ने कहा…

रात के क्षण
सुबह से शाम
भागते दौड़ते
थक गया तन
जग की राहे
सुबह से शाम
कहते सुनते
उब गया मन
जग से बाते
छाया तम है
गहरा
निर्जन रात
एकांत चारो और
रजनी का पहरा
उद्वेलित श्वास
मन उदास
आंखे नम है
क्यों उमड़ने
लगी आज फिर से
भग्न अंतर की
निराशा
छंद रचने के क्षण !


bahut khub

achi rachana


shkehar kumawat

http://kavyawani.blogspot.com/

Suman ने कहा…

dhanyavad.........

आशा जोगळेकर ने कहा…

मन उदास
आंखे नम है
क्यों उमड़ने
लगी आज फिर से
भग्न अंतर की
निराशा
छंद रचने के क्षण !
निराशा और दुखसे होी कविता उपजती है । बहुत सुंदर ।
आप मराठी कैसे जानती हैं ?

Randhir Singh Suman ने कहा…

nice