गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

काफी है जीने के लिए ...

मान लो ,
मन नदी मानसरोवर 
उपर वासनाओं की लहरे 
निचे शीतल जल 
लगातार इन लहरों का 
चल रहा अर्थहीन -सा क्रम 
प्रवंचना के हवाई थपेड़े घेरे 
समीप किनारे शंख -सीप 
पसरे हो जैसे    … 
मृगछौने लंगड़ी इच्छायें ,
नदी गहराई में शांत जल
गहराई के भी भीतर छिपा 
प्रेम रूपी मुक्ता फल  
आओ , डुबकी लगाये 
इस प्रेम रूपी मुक्ता को 
उपर  लाये 
आकाश की तरह फैलायें 
गुलाब की तरह महकायें 
अपने-अपने   "मै " को 
छोटा  कर के हम  तुम  
मिल के  !
ऐसा प्रेम जरुरी ही नहीं 
काफी है जीने के लिए 
लेकिन  ,
"मै " इसमे बाधा है  !