सोमवार, 17 दिसंबर 2007

मौसम आया है सुहाना

दूर गगन के
टीम-टीम तारे
मुझसे बोले
आओ परियौं के
 देश चले
चन्दा बोला
चलो चले
बादलों में
दौड़ लगाए
फूल बोले
बाग़ में आओ
संग हमारे
खिल खिलाओ
तितली बोली
क्योँ न खेले
तुम हम
आँख मिचोली
कोयल बोली
छोडो पढना
सुर में सुर मिला कर
गायें गाना
मौसम आया है
सुहाना ....!



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शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2007

जीवन को सफ़ल बनाऊ कैसे

तू आज बता दे फूल मुझे
मैं तुझ सी खिल पाऊं कैसे
तेरे जीवन पथ पर बिछे हैं कांटे
फिर भी उर में मुस्कान समेटे
पल-पल हवा के झोंके से,
खुशबू जग में बिखराता है तू
तुझ जैसी खुशबू बिखराकर
जीवन को महकाऊ कैसे
में तुझ सी खिल पाऊं कैसे ?
सुबह को खिलता साँझ मुरझाता
मंदिर मजार पर बलिदान चढ़ता
कितना सफ़ल है जीवन तेरा
मुझको खलती मेरी नश्वरता
तुझ जैसा बलिदान चढा कर
जीवन को सफ़ल बनाऊ कैसे ?
मै तुझ सी खिल पाऊं कैसे ?

कौन नींद से मुझे जगाता

अक्सर मै सोचती हूँ
फिर भी मन है कि समझ न पाता
साँझ सवेरे नील गगन में,
अनगनित झिलमिल दीप
कौन जलाता कौन बुझाता
भोर से पहले पंछी जागते
पत्ते -पत्ते पर ,
कौन मोती बिखराता ?
सवेरे -सवेरे फूल खिल जाते
हवावोंमे सौरभ भर जाता
पल में भौंरों को
कौन संदेस पहुँचाता ?
कोयल के सुरीले कंठ से गाकर
कौन नींद से मुझे जगाता ?

आई भोर

पेड पौधे जागें
पंछियों के मीठे
गीत जागें
खिली कलियाँ
फूल महके,
कलि कुसुमों पर
भौंरे इतराये
नए स्वप्न
नयी आशा,
आलस त्याग कर
जागी उषा,
चहु ओर मधुर शोर,
अब तो जागो मन
श्वेत परिधान
पहन कर
स्वागत करने,
बडे सवेरे
आई भोर !

शनिवार, 22 सितंबर 2007

सुमित के बारे में

एक दिन सुमित जो कि मेरा प्यारा सा बेटा है मुझसे पूछने लगा कि मम्मी मुझमे
ऐसा क्या है जो तुम्हें अच्छा लगता है ! मैंने कहा तुम्हारी आंखें, तुम्हारी आंखे मुझे बहुत सुन्दर लगती है
इन आंखों में सुबह से शाम तक न जाने कितने सारे भाव आते जाते रहते है ! और इन भावों को मैंने कविता में कुछ इस तरह उसे समझाया था ....!


देख तुम्हारी 
भोली आंखें
कहता है मन 
उसपर कोई 
कविता लिखू
आंखें तेरी 
इतनी प्यारी
लगता है कोई 
नीली-सी 
झील हो 
गहरी
हलके से उठती
गिरती पलके
शोख शरारत
तेरी आंखें
कभी सपनों में  
खोये खोये से  
लगते साँझ 
के जैसे 
उदास साये
चंचल चितवन 
तेरी आंखें
सबके मन को 
मोह लेती आंखे
मीत तुम्हारी ये 
अनमोल आंखे
सम्हाल कर 
रखना इन्हें,
इन आँखों से 
कभी बूंद ढले
गंगा जल हो 
निर्मल आंखे
काश कभी 
ऐसा भी हो
तेरी आंखें देखूं 
और सुबह हो
तेरी आंखे देखते 
जीवन की 
शाम ढले !

मेरी कविता

जीवन कि रिक्त पाटीपर
इन्द्रधनुषी रंग भरने ,
जब तब चली आती है
मेरी कविता
जब मनपर छाई हो उदासी
डराती हो मुझको मेरी ही तनहाई
तब शब्द गंधा बनकर ,
मुझको बहलाने चली आती है
मेरी कविता
कभी खुशियोंके हिंडोले पर झुलाती
धड़कन में कस्तूरी सी घोल जाती
खिल जाती मन आंगन कि ,
पूलवारी,
तब रजनीगंधा बन कर,
मेरे घर को महकाने चली आती है
मेरी कविता!

शुक्रवार, 21 सितंबर 2007

मरू-उद्यान

ह्रदय के मरू उद्यान मे,
काव्यों के वृक्ष घने हैं
सतरंगी घटाओ मे ,
भावना के फूल खिले हैं
अमर बेलोंके झुरमुट मे
कोयल का नित प्रेम गान हैं
शीतल झरनों के संगीत में ,
अनहद का नाद छिपा हैं
पक्शियोंके चहचहाहट में
जीवन का वीतराग है
भूले भटके पल में ,
चाहे तो विश्राम यंहा है !

सोमवार, 17 सितंबर 2007

छंन्द मेरी कविता का !

मैं अकेली खड़ी
कि,चांद छत पर 
आ गया !
चांदनी शर्मा गयी 
शाम हो गयी 
जवान
कलि-कलि 

चटक गयी ,
फूल बन कर 
खिल गयी !
रोम-रोम 
पुलक गया 
ये जो तन 
माटी का मेरा 
चंदन सा 
महक गया !
मन की सोन 
चिरय्या कहती 
प्यार मुझको 
हो गया !
दिल की खिड़की से 
गंध उसका 
उड गया 
छंद मेरी 
कविता का
रस विभोर
 कर गया !

शुक्रवार, 14 सितंबर 2007

राखी के बहाने

सुबह का उजाला
आज मेरे घर
यूँ ही चला आया है !

राखी के बहाने

याद भाई की
लाया है !
राखी का पर्व दिन
खुशियोंका त्यौहार
संग अपने लाया है
प्यार और उल्हास
मिठाई, रोली, चंदन
भाई बहन का प्यार
जन्मों का है बन्धन !
भाई,
भेज रही हूँ राखी
साथ मे रेशम की डोर
गोरी गोरी कलाई पर
 बांधकर
स्नेह का उपहार दो !

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