शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

छुई-मुई मेरे आँगन में ..........

साँझ ढलते ही
मुरझाती है
सुबह होते ही
खिल जाती है
हरे-भरे परिधान में
छुई-मुई मेरे आँगन में
नाजुक-सा तन-बदन
सुमन-सी सुकुमारी
मृदु स्पर्श मात्र से
सिमट-सिमट कर
रह जाती
आते-जाते सबके
पुलक जगाती तन-मन में
छुई-मुई मेरे आँगन में
उसके निकट बैठू तो
आती है मुझको
उससे चंपा-सी गंध
पत्ते-पत्ते पर
लिख लाती है
नित नवे छंद
गुलाब भी झूमता है
मेहंदी के गीत में
छुई-मुई मेरे आँगन में !!

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

जीवन को महकाऊं कैसे

तू बता दे फूल मुझे ..........
मै तुझ सी खिल पाऊं कैसे?
तेरे जीवन पथ पर,
बीछे है कांटे फिर भी
उर में मुस्कान समेटे
पल-पल हवा के झोंके से,
खुशबू जग में ,
बिखराता है तू
तुझ जैसी खुशबु बिखराकर
जीवन को महकाऊ कैसे
तुझ सी खिल पाऊ कैसे?
सुबह को खिलता
साँझ मुरझाता
मंदिर मज़ार पर
बलिदान चढता
कितना सफल है
जीवन तेरा
मुझको खलती मेरी
नश्वरता !
तुझ जैसा बलिदान चढ़ाकर
जीवन को सफल
बनाऊ कैसे ? तुझ सी
खिल पाऊ कैसे?