अक्सर मै सोचती हूँ
फिर भी मन है कि समझ न पाता
साँझ सवेरे नील गगन में,
अनगनित झिलमिल दीप
कौन जलाता कौन बुझाता
भोर से पहले पंछी जागते
पत्ते -पत्ते पर ,
कौन मोती बिखराता ?
सवेरे -सवेरे फूल खिल जाते
हवावोंमे सौरभ भर जाता
पल में भौंरों को
कौन संदेस पहुँचाता ?
कोयल के सुरीले कंठ से गाकर
कौन नींद से मुझे जगाता ?
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 टिप्पणी:
बहुत सुन्दर ....
http://satish-saxena.blogspot.com/2008/11/blog-post_03.html
शुभकामनायें !
एक टिप्पणी भेजें