ऐ चाँद आसमा के
जब भी तुम अपनी
चांदनी से मिलने
नील गगन में
आ जाते हो
सारा अस्तित्व जैसे
दुधिया गंगा में
पोर-पोर
नहा जाता है
चटक कर कलियाँ
फूल बन खिल
जाती है !
मदमस्त होकर सुरभि
हवाओं में सौरभ
भर देती है !
लिये पलकों पर
स्वप्न सिंदूरी
चाँद की बांह में
चांदनी सुरमई
हो जाती है !
भोर प्रात में जब
चांदनी से बिछड़ कर
घडी भर भी रुकते
नहीं हो न चाँद,
तब धरती के
पात-पात पर
शबनम मोती-सी
बिखर जाती है !
चांदनी के आंसू ही
शबनम नहीं तो
और क्या है !
14 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर सुमन जी.....
बहुत प्यारी रचना.
सादर
अनु
बहुत ही बढ़िया
सादर
चाँदनी की विरह व्यथा .... बहुत सुंदर रचना
बेहतरीन बिम्ब चुन रची पंक्तियाँ.....
वाह ... बेहतरीन ।
कितने गहरे अनुपम भाव
प्रकृति के गहन भावों की सुंदर और गहरी अभिव्यक्ति.
कविता में उस आकाश के चांद को इस धरती की मानवीय संवेदना से जोड़ने प्रयास किया गया है।
है चांद आज गुमसुम
मुरझाई-सी चांदनी है
है सोच कि ये मिलना
बिछड़ना ही कहानी है?
बहुत खूब ... ये शबनम चांदनी के आंसू ही तो हैं ... तभी तो इतने नाज़ुक हैं ... लाजवाब रचना ..
अच्छी कविता लिखी है आपने, सुमन जी।
चांदनी के सबनमी आंसू वाह क्या बात है सुमन जी ।
sabhi kavitaayen acchi hain suman jee ....
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