शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

लोग कहाँ पचा पाते है …

अभिव्यक्ति की आजादी 
हर किसी को  है 
लेकिन चंद संबुद्ध 
रहस्यदर्शी ही 
सही मायने में उसका 
उपयोग कर पाते है
जस का तस नग्न सत्य 
कह पाते है
जब हम और आप कहते है 
तब हजारों उंगलियां उठती है 
हमारी ओर विरोध स्वरूप 
लोग कहाँ पचा पाते है 
उस नग्न सत्य को    .... !!

9 टिप्‍पणियां:

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

वाणी का संयम, शब्दों की गरिमा और सत्य की सुगन्ध के साथ ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को परिभाषित किया जा सकता है. जब कोँए में भंग पड़ी हो, जब नेत्रहीनों की बस्ती में कोई आँख वाला आ जाए, जब बेड़ियों को गहना मान लिया गया हो, जब अन्धकार की कालिमा को ही जीवन का रंग समझे बैठे हों लोग, तो सुकरात हो या मीरा लोग तो विष का प्याला ही प्रस्तुत करते हैं. यहाँ तक कि चन्द सम्बुद्ध रहस्यदर्शी भी इससे अछूते नहीं. विरोध प्रमाणित करता है कि कोई जीसस सच बोल रहा है, कोई मंसूर रूढि को चुनौती दे रहा है!
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एक सलाह:
कृपया पोस्ट लिखते समय इतने बोल्ड फॉण्ट्स का प्रयोग न करें, सम्पूर्ण टेक्स्ट के लिये. आँखों में चुभते हैं.

Suman ने कहा…

बहुत बहुत आभार इस टिप्पणी के लिए
और सार्थक सलाह याद रखूंगी :)

Satish Saxena ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Satish Saxena ने कहा…

मैं अक्सर भुक्तभोगी रहा हूँ सत्य की मार का ! आदत पड़ चुकी है लोगों को मुखौटे लगाए रखने की ! इसे उतारते ही उन्हें अपने नंगे होने का भय लगता है ! नतीजा अक्सर विस्फोटक रहता है :)
मंगलकामनाएं आपको!

राजीव कुमार झा ने कहा…

बहुत सुंदर प्रस्तुति.
इस पोस्ट की चर्चा, रविवार, दिनांक :- 13/07/2014 को "तुम्हारी याद" :चर्चा मंच :चर्चा अंक:1673 पर.

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

समसामयिक पंक्तियाँ ...कटु है पर है खरी बात

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सच बात कही है ...
अभिव्यक्ति की आज़ादी का अक्सर लोग गलत इस्तेमाल ही करते हैं ... फिर इस आजादी के मुखौटे के पीछे खड़े हो जाते हैं ...

Asha Joglekar ने कहा…

सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात शायद इसी लिये कहा गया है। सच को कहने के तरीके होते हैं। सच अक्सर कडुवा होता है।

आलोक सिन्हा ने कहा…

सुंदर सही विचार ।