बुधवार, 17 अगस्त 2011

मन के निविड़ एकांत में .......

छुट जाने दो
सब परिधियाँ
शब्द, संवाद
विविध भावनाओं का
व्यापार !
प्रतिपल बढ़ता
रात का सन्नाटा
और सन्नाटे में,
अपने ही मन के
निविड़ एकांत में,
अंतर्लीन-सी
डूब जाऊं मै
और सुनती रहूँ
चुपचाप रात के 
सन्नाटे की
अपनी जुबांन !

9 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

sannate ki zubaan sunna jivan ko pana hai

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

सुंदर प्रयोग... सन्नाटे में गूंज का॥

Rachana ने कहा…

rat ke sannate ki apni zuban .................
kya sunder likha hai
rachana

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

और सन्नाटे में,
अपने ही मन के
निविड़ एकांत में,
अंतर्लीन-सी
डूब जाऊं मै

गहन अभिव्यक्ति सुमनजी......

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

अपने ही मन के
निविड़ एकांत में,
अंतर्लीन-सी
डूब जाऊं मै
और सुनती रहूँ
चुपचाप रात के
सन्नाटे की
अपनी जुबांन !

सन्नाटे की भी अपनी जुबां होती है जो बहुत शोर करती है .. अच्छी प्रस्तुति

Asha Joglekar ने कहा…

निविड़ एकांत में,
अंतर्लीन-सी
डूब जाऊं मै
और सुनती रहूँ
चुपचाप रात के
सन्नाटे की
अपनी जुबांन !

साथ ही अंतर्मन की जुबान भी । सुंदर ।

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

छुट जाने दो
सब परिधियाँ...

कुछ पाने के लिए इन परिधियों को तोडना आवश्यक है .....
मन की गहराइयों से निकली पंक्तियाँ .....

Apanatva ने कहा…

ati sunder .
ye hee kshan hume apane paas le jate hai .
aabhar

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

रात के
सन्नाटे की
अपनी ज़ुबान


मन की गहराइयों से निकली पंक्तियों के लिए मन से आभार और बधाई है आपको आदरणीया सुमन जी !

विलंब से ही सही…
♥ स्वतंत्रतादिवस सहित श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !♥
- राजेन्द्र स्वर्णकार