मान लो ,
मन नदी मानसरोवर
उपर वासनाओं की लहरे
निचे शीतल जल
लगातार इन लहरों का
चल रहा अर्थहीन -सा क्रम
प्रवंचना के हवाई थपेड़े घेरे
समीप किनारे शंख -सीप
पसरे हो जैसे …
मृगछौने लंगड़ी इच्छायें ,
नदी गहराई में शांत जल
गहराई के भी भीतर छिपा
प्रेम रूपी मुक्ता फल
आओ , डुबकी लगाये
इस प्रेम रूपी मुक्ता को
उपर लाये
आकाश की तरह फैलायें
गुलाब की तरह महकायें
अपने-अपने "मै " को
छोटा कर के हम तुम
मिल के !
ऐसा प्रेम जरुरी ही नहीं
काफी है जीने के लिए
लेकिन ,
"मै " इसमे बाधा है !