गुरुवार, 14 नवंबर 2013

जहाँ कवितायेँ नहीं, ऋचायें झरती है …

ओ  कवि  मन ,
आखिर कब तक 
यूँ  ही शब्दों से 
खेलते रहोगे  ? 
अविराम कब तक 
भटकते  रहोगे  ?
बहुत हो चुका 
प्रेम सपनों से 
कोरी कल्पनाओं से 
चलो शब्दों के पार 
परा  के पार की 
दुनिया में , जहाँ 
शब्द नहीं मौन 
बोलता है, जहाँ 
कवितायेँ नहीं ,
ऋचायें  झरती है  !
दुनिया  की सारी 
चिंताओं  से दूर 
सारी हदों के पार 
केवल अनहद में  
विश्राम ही विश्राम 
है जहाँ  पर  … !!