ओ कवि मन ,
आखिर कब तक
यूँ ही शब्दों से
खेलते रहोगे ?
अविराम कब तक
भटकते रहोगे ?
बहुत हो चुका
प्रेम सपनों से
कोरी कल्पनाओं से
चलो शब्दों के पार
परा के पार की
दुनिया में , जहाँ
शब्द नहीं मौन
बोलता है, जहाँ
कवितायेँ नहीं ,
ऋचायें झरती है !
दुनिया की सारी
चिंताओं से दूर
सारी हदों के पार
केवल अनहद में
विश्राम ही विश्राम
है जहाँ पर … !!