रात के क्षण
सुबह से शाम
भागते दौड़ते
थक गया तन
जग क़ी राहें !
सुबह से शाम
कहते सुनते
उब गया मन
जग से बाते !
छाया तम है
गहरा !
निर्जन रात
एकांत, चारोओर
रजनी का पहरा !
उद्वेलित श्वास,
मन उदास
आँखे नम है !
क्यों उमड़ने लगी
आज फिरसे
भग्न अंतर क़ी
निराशा
छंद रचने के क्षण !
सुबह से शाम
भागते दौड़ते
थक गया तन
जग क़ी राहें !
सुबह से शाम
कहते सुनते
उब गया मन
जग से बाते !
छाया तम है
गहरा !
निर्जन रात
एकांत, चारोओर
रजनी का पहरा !
उद्वेलित श्वास,
मन उदास
आँखे नम है !
क्यों उमड़ने लगी
आज फिरसे
भग्न अंतर क़ी
निराशा
छंद रचने के क्षण !