सोमवार, 17 सितंबर 2007

छंन्द मेरी कविता का !

मैं अकेली खड़ी
कि,चांद छत पर 
आ गया !
चांदनी शर्मा गयी 
शाम हो गयी 
जवान
कलि-कलि 

चटक गयी ,
फूल बन कर 
खिल गयी !
रोम-रोम 
पुलक गया 
ये जो तन 
माटी का मेरा 
चंदन सा 
महक गया !
मन की सोन 
चिरय्या कहती 
प्यार मुझको 
हो गया !
दिल की खिड़की से 
गंध उसका 
उड गया 
छंद मेरी 
कविता का
रस विभोर
 कर गया !