मंगलवार, 22 सितंबर 2009

मृत्यु

हर पल मरकर जीती हूँ
मै मृत्यु से बहुत डरती हूँ
रोज निहारती हूँ दर्पन में ख़ुद को,
चेहरे की झुरियों को, पकते केशों को,
आँखों के नीचे काले पड़ते वर्तुलों को
और सोचती हूँ
अभी-अभी तो खिला था
जीवन का बसंत
नही, अभी न हो मेरा अंत
मै जीवन संध्या से घबराती हूँ
यहाँ हर रोज कही किसी सड़क पर
देखती हूँ दुर्घटना से क्षत विक्षित
लाशो को , अस्पताल में दम तोड़ते
प्रिअजनो को चिता पर जलते
बचती हूँ इन प्रश्नों से
क्या है जीवन? क्या है मृत्यु ?
वो रातों के सन्नाटे में
भरी दोपहर के उजाले में,
हर पल हर मोड़ पर खडे
होटों पर कुटिल मुस्कान लिए मुझसे
नजरे मिलाने का दुस्साहस करती है
मै नजरे चुराने की कोशिश करती हूँ !

2 टिप्‍पणियां:

shyam gupta ने कहा…

सत्य है यदि हम म्रित्यु से डरेंगे तो नज़रें चुरानी ही पडतीं हैं।--तभी कवि ने कहा-’निर्भय स्वागत करो म्रत्यु का..’---अच्छे भाव।

Suman ने कहा…

bahut suhukriya shyam sahab.