कभी किसी ने कहा....
प्रेम महज आत्मरति है
या फिर भावनाओं का
आदान-प्रदान और
कुछ नहीं है प्रेम !
किस शब्द से लिखूं कि,
प्रेम क्या है ?
या निशब्द से कहूँ कि,
प्रेम क्या है ?
प्रेम कही ये तो नहीं ...
जिसके नाम मात्र से
छाने लगती है खुमारी
कानों में गूंजने
लगती है मंदीर क़ी
घंटियों क़ी आवाज !
सुनाई देने लगते है
पवित्र अजान के स्वर !
तब हम किसी दिव्य
लोक में पहुँच जाते है
प्रेम प्रार्थना बन जाता है
तन चन्दन मन धूप
बन जाता है !
कही हमारी ही
नाभि से उठ रही
कस्तूरी सुगंध तो
नहीं है प्रेम ?
12 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर रचना ..स्वयं के अंदर ही तो है प्रेम ..
प्रेम हम सब के भीतर ही कहीं है..... सच कहा
प्रेम का सनातन उत्स।
बहुत सुंदर।
प्रेम मा की लोरी से लेकर प्रीतम का बेतुका आलाप है:)
भावपूर्ण कविता के लिए आभार.........
प्यार महसूस करने की चीज़ है शारीरिक लिप्सा की नहीं जैसा आजकल देखने में आ रहा है.
वाह ...बहुत बढिया।
क्या बात है बहुत सुंदर .......
जो कुछ भी कहा जाए,प्रेम से थोड़ा कम ही होगा।
बहोत सुंदर कविता । बडा अच्छा लगा पढ के ।
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Beautiful as always.
It is pleasure reading your poems.
सुमन जी आपकी यह रचना मन को छो गयी .........बहुत ही सुन्दर व्याख्या है .......हाँ प्रेम को हम इस तरह से भी समझ सकते हैं | प्रेम =परे +मय अर्थात जब मन अहंकार से विरक्त होता है तो प्रेम की उत्पत्ति होती है | सच्चा प्रेम वही है जहाँ अहंकार शून्यता की स्थिति प्राप्त हो जाये |
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