कुर्सी एक, उसके
पीछे भीड़ असंख्य है
ऐसे लग रहा है
जैसे देश की उन्नति
प्रजा का सुख
कुर्सी और पावर
में ही निहित है
चटपटी बात है .... !
कीचड़ में कमल
खिलता है
कितनी सही बात है
लोक लुभावन
वायदों की कीचड़ मे
सुगंध बिखेर रहा है
कमल खिल रहा है
अटपटी बात है … !
10 टिप्पणियां:
रोचक ....
अर्जुन बेचारा कुरुक्षेत्र में यह सोच सोचकर गला जा रहा था कि अपनों को मारकर यदि यह कुर्सी मिले तो क्या मैं इसे एंजॉय कर पाउँगा? और तब प्रभु ने उसे समझाया कि यही धर्म है तेरा और तू इसीलिये पैदा हुआ है.
आज देश अर्जुनों का देश बना हुआ है. हर किसी को बस चिड़िया की आँख की तरह कुर्सी ही दिख रही है. "अपने-अपनों" का दर्द महसूस करना सिर्फ दिखावा ही है.प्रभु (विवेक एवम अंतरात्मा) की अनुपस्थिति इस परिस्थिति का कारण है!
नर्सरी राइम वाले अन्दाज़ में लिखी बड़ों की कविता. बहुत सी भूलें हैं जिन्हें सुधारा जाना चाहिये:
भीड़ असंख्यक है कि जगह भीड़ असंख्य है.
उन्नती के स्थान पर उन्नति
सु:ख की जगह सुख
कुर्सी और पॉवर से ही निहित है की जगह कुर्सी और पावर में ही निहित है!!
अन्यथा न लेंगी ऐसा विश्वास है!!
अन्यथा न लेते हुये बहुत सारी भूलों को मानकर सही कर के आभार के साथ एक सच्चे स्नेही गुरुभाई के आदेश स्वरूप माना है :)
आभारी हूँ !
"ध्यान" के महत्व को समझाते समझाते मै खुद भूल गयीं थी कि लिखते समय शब्दों पर भी ध्यान देना चाहिए :)
लोकतंत्र के जलप्रवाह में बसी गन्दगी सड़ती जाती,
इन परनालों के जमुना में,कहीं न कहीं मुहाने होंगे !
कमल कीचड में खिल कर भी उससे ऊपर रहता है पर अपनी ऊर्जा इस कीचड से ही लेता है। राजनीति में भी ऐसा ही हो।
कमल क्या सच मैं खिलने वाला है इस बार ... पर कुर्सी का मोह सभी को है ...
जो खिला कमल कीचड़ में
खुद कीचड़ बन मुरझाया
कमल खिलाने कीचड़ में
फिर भीड़ जिद्द पर आया!
रमण जी,
आपकी टिप्पणी के लिये कबसे तरस गयी थी आपका आना सुखद लगता है
सही विश्लेषण, आभार इस टिप्पणी के लिये !
सुंदर रचना
एक टिप्पणी भेजें